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प्राकृतिक चिकित्सा स्वस्थ जीवन बीताने की एक कला एवं विज्ञान है । यह ठोस सिद्धान्तों पर आधारित एक औषधिरहित रोग निवारक पद्धति है । स्वास्थ्य, रोग तथा चिकित्सा सिद्धांतो के संबंध में प्राकृतिक चिकित्सा के विचार नितान्त मौलिक है ।
प्राकृतिक चिकित्सा एक अति प्राचीन विज्ञान है । वेदों व अन्य प्राचीन ग्रंथो में हमें इसके अनेक संदर्भ मिलते है । ‘‘विजातीय पदार्थ का सिद्धांत ’जीवनी शक्ति सम्बन्धी अवधारणा’ तथा अन्य धारणाएं जो प्राकृतिक चिकित्सा को आधार प्रदान करती है प्राचीन ग्रन्थो में पहले से ही उपलब्ध हैं तथा इस बात की ओ संकेत करती है कि इनका प्रयोग प्राचीन भारत में व्यापक रूप् से प्रचलित था ।
भारत में प्राकृतिक चिकित्सा के पुनरुत्थान की शुरूआत जर्मनी के लुई कुने की पुस्तक ‘न्यू साइन्स आॅफ हीलिंग’ के अनुवाद से हुई तेलगु भाषा में इस पुस्तक का अनुवाद श्री डी. वेंकटचेलापति षर्मा ने सन् 1894 के आसपास किया । बिजनौर निवासी श्री श्रोती कृष्ण स्वरूप ने सन् 1904 के लगभग इस पुस्तक का हिन्दी व उर्दु भाषाओं में अनुवाद किया । इससे इस पद्धति के पचार - प्रसार को काफी बढावा मिला ।
एडोल्फ जस्ट’’ की पुस्तक ‘रिटर्न टू नेचर’ से प्रभावित होकर गाॅधी जी प्राकृतिक चिकित्सा के प्रबल समर्थक बन गए । उन्होंने न केवल अपने पत्र ‘हरिजन’ में प्राकृतिक चिकित्सा के समर्थन में अनेक लेख लिखे बल्कि अपने उपर परिवार के सदस्यों व आश्रमवासियों पर इसके अनेक प्रयोग भी किए । ज्ञातव्य है कि गांधी जी पुणे स्थित डाॅ. निदषा मेहता के नेचर क्योर क्लिनिक में सन् 1934 से 1944 के मध्य चिकित्सा के लिए रूका करते थे उनकी स्मृति को चिरस्थायी करने के लिए भारत सरकार ने उस स्थान पर राष्टीय प्राकृतिक चिकित्सा संस्थान, बापू भवन, ताडीवाला रोड पुणे 411001 की स्थापना सन् 1986 में की जो इस क्षेत्र में अनसाधारण को अनेक सेवाएं प्रदान कर रहा है । गाॅधी जी ने प्राकृतिक चिकित्सा को अपने रचनात्मक कार्यो में स्थान दिया । गाॅधी जी के प्रभाव के कारण अनेक राष्ट्रीय नेता भी इस अल्पसंख्यक स्वास्थ आन्दोलन से जुड गए । उनमें भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्री मोरारजी देसाई गुजरात के पूर्व राज्यपाल श्री श्रीमन्नारायण जी भूतपूर्व राष्टपति श्री वीवी गिरी आचार्य विनोबा भावे तथा श्री बालकोवा भावे के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है ।
यहाॅ इस बात का उल्लेख करना भी उपयुक्त होगा कि प्राकृतिक चिकित्सा का आधुनिक आन्दोलन जर्मनी तथा अन्य पाष्चात्य देषों में ‘जल चिकित्सा’ के रूप में प्रारंभ हुआ । उन प्रारम्भिक दिनों में ‘जल चिकित्सा’ के रूप् में जाना जाता था ।
जल चिकित्सा’ को विश्व प्रसिद्ध बनाने का श्रेय विन्सेन्ट प्रिसनिज (1799 – 1851) को जाता है, जो कि एक कृषक थे । बाद में अन्य लोगो ने भी इस कार्य में अपना योगदान दिया । इनमें लुई कुने का नाम उल्लेखनीय है जिन्होने ‘रोगो की एकरूपता का सिद्धान्त’ प्रतिपादित कर इस चिकित्सा प्रणाली को एक सैद्धान्तिक आधार प्रदान किया । इनकी लिखी पुस्तक ‘न्यू साइन्स आॅफ हीलिंग’ का विष्व की अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ ।
प्राकृतिक चिकित्साओं के अन्य प्रणेताओं में डाॅ. हेनरी लिण्डलार, डाॅ. जे.एच.केलाग, अर्नाल्ड इहरिट, डी.डी. पामर, रेलियर, ई.डी. बैबिट, मैकफेडन, अर्नाल्ड रिक्ली, जे. एच. टिल्डेन, फादर नीप, बेनेडिक्ट लस्ट, स्अेनली लीफ तथा हेरी बेंजामिन आदि के नाम भी प्रमुखता से लिए जा सकते है ।
आज प्राकृतिक चिकित्सा नेचरोपैथी एक स्वतंत्र चिकित्सा पद्धति (System of Medicine) के रूप में सर्वसामान्य है ।
प्राकृतिक चिकित्सा व्यक्ति को उसके शारिरिक, मानसिक, नेतिक तथा आध्यात्मिक तलों पर प्रकृति के रचनात्मक सिद्धान्तों के अनुकूल निर्मित करने की एक पद्धति है । इसमें स्वास्थ्य संवर्धन, रोगो से बचाव, रोग निवारण और पुनर्स्थापना कराने की अपूर्व क्षमता है ।
प्राकृतिक चिकितसा के सिद्धान्त: प्राकृतिक चिकित्सा के मुख्य सिद्धान्त इस प्रकार है -
1. सभी रोग, उनके कारण एवं उनकी चिकित्सा एक है । चोट - चपेट और वातावरणजन्य परिस्थितियों को छोडकर सभी रोगों का मूलकारण एक ही है और इनका इलाज भी एक है । शरीर में विजातीय पदार्थो के संग्रह से रोग उत्पन्न होते है और शरीर से उनका निष्कासन ही चिकित्सा है ।
2. रोग का मुख्य कारण जीवाणु नही है । जीवाणु शरीर में जीवनी शक्ति के ह्रास आदि के कारण विजातीय पदार्थो के जमाव के पशचात् तब आक्रमण कर पाते है जब शरीर में उनके रहने और पनपने लायक अनुकूल वातावरण तैयार हो जाता है । अतः मूल कारण विजातीय पदार्थ है, जीवाणू नहीं । जीवाणु द्वितीय कारा है ।
3. तीव्र रोग चूंकि शरीर के स्व-उपचारात्मक प्रयास है अतः ये हमारे षत्रु नही मित्र है । जीर्ण रोग तीव्र रोगों के गलत उपचार और दमन कें फलस्वरूप पैदा होते है ।
4. प्रकृति स्वयं सबसे बडी चिकित्सक है । शरीर में स्वयं को रोगों से बचाने व अस्वस्थ हो जाने पर पुनः स्वास्थ्य प्राप्त करने की क्षमता विद्यमान है।
5. प्राकृतिक चिकित्सा में चिकित्सा रोग की नहीं बल्कि रोगी की होती है ।
6. प्राकृतिक चिकित्सा में रोग निदान सरलता से संभव है । किसी आडम्बर की आवष्यकता नहीं पडती । उपचार से पर्वू रोगों के निदान के लिए लम्बा इन्तजार भी नहीं करना पडता ।
7. जीर्ण रोग से ग्रस्त रोगियों का भी प्राकृतिक चिकित्सा में सफलतापूर्वक तथा अपेक्षाकृत कम अवधि में इलाज होता है ।
8. प्राकृतिक चिकित्सा से दबे रोग भी उभर कर ठीक हो जाते है ।
9. प्राकृतिक चिकित्सा द्वारा शारिरिक, मानसिक, सामाजिक (नैतिक) एवं आध्यात्मिक चारों पक्षों की चिकित्सा एक साथ की जाती है ।
10. विशिष्ट अवस्थाओं का इलाज करने के स्थान पर प्राकृतिक चिकित्सा पूरे शरीर की चिकित्सा एक साथ करती है ।
11. प्राकृतिक चिकित्सा में औषधियों का प्रयोग नहीं होता । प्राकृतिक चिकित्सा के अनुसार ‘आहार ही औषधी’ है ।
12. गांधी जी के अनुसार ‘राम नाम’ सबसे बडी प्राकृतिक चिकित्सा है अर्थात् अपनी आस्था के अनुसार प्राथना करना चिकित्सा का एक आवष्यक अंग है ।
प्राकृतिक चिकित्सा वस्तुतः स्वस्थ रहने का विज्ञान है । यह हमें सिखाती है कि हमें किस प्रकार से रहना चाहिए, क्या खाना चाहिए और हमारी दिनचर्या कैसी होनी चाहिए । प्राकृतिक चिकित्सा के तौर - तरीके न केवल हमें रोगों से मुक्ति दिलाने में सहायता पहुॅचाते है बल्कि इनका समुचित और नियमित पालन करने पर स्वास्थ्य सषक्त एवं प्रभावपूर्ण बन जाता है ।
इसलिए प्राकृतिक चिकित्सा को ‘प्रकृतिक जीवन’ भी कहा जाता है । इसका मूल उद्देष्य लोगों की रहन - सहन की आदतों में परिवर्तन कर उन्हे स्वस्थ जीवन जीना सिखाना है । प्राकृतिक चिकित्सा की विभिन्न विधियाॅ इस उद्देश्य की पूर्ति में अत्यन्त सहायक है ।
मनुष्य के शरीर में स्वयं रोग मुक्त करने की अपूर्व शक्ति है । यह पांच तत्वों ;पंच महाभूतोद्ध का बना है जिनका असंतुलन ही रोगों के उत्पन्न होने का कारण है । इन्ही तत्वो - मिट्टी, पानी, धूप, हवा और आकाश द्वारा रोगों की चिकित्सा प्राकृतिक चिकित्सा में सामान्य रूप से प्रयोग में लायी जानेवाली चिकित्सा और निदान की विधियाॅ निम्न है -
इस चिकित्सा के अनुसार आहार को उसके प्राकृतिक या अधिक से अधिक प्राकृतिक रूप में ही लिया जाना चाहिए । मौसम के ताजे फल, ताजी हरी पत्तेदार सब्जियाॅ तथा अंकुरित अनाज इस लिए आवश्यक है । इस आहारों को मोटे तौर पर तीन वर्गो में वर्गीकृत किया गया है ।
1. शुद्धिकारक आहार-रस : नींबू, खट्टे रस, कच्चा नारियल पानी, सब्जियों के सूप, छाछ आदि ।
2. शांतकारण आहार : फल, सलाद, उबली भाप से बनायी गयी सब्जियाॅ, अंकुरित अन्न, सब्जियों की चटनी आदि ।
3. पुष्टिकारक आहार : सम्पूर्ण आटा, बिना पालिश किया हुआ चावल, कम दालें अंकुरित अन्न, दही आदि ।
क्षारीय होने के कारण ये आहार स्वास्थ्य को उन्नत करने के साथ - साथ शरीर का शुद्धीकरण कर रोगों से मुक्त करने में भी सहायक सिद्ध होते है । इसके लिए आवश्यक है कि इस आहारों का आपस मं उचित मेल हो । स्वस्थ रहने के लिए हमारा भोजन 20 प्रतिशत अम्लीय और 80 प्रतिशत क्षारीय अवश्य होना चाहिए । अच्छा स्वास्थ्य बनाये रखने के इच्छुक व्यक्ति को संतुलित भोजन लेना चाहिए । प्राकृतिक चिकित्सा में आहार को ही मूलभूत औषधी माना जाता है ।
स्वस्थ्य रहने के प्राकृतिक तौर - तरीकों में उपवास एक महत्वपूर्ण तरीका है । उपवास में प्रभावी परिणाम प्राप्त करने के लिए मानसिक तैयारी एक महत्वपूर्ण क्रिया है इसके पश्चात् एक या दो दिन का उपवास किसी भी समय कराया जा सकता है ।
उपवास के बारे में प्राकृतिक चिकित्सा का मानना है कि यह पूर्ण शारिरिक और मानसिक विश्रााम की प्रक्रिया है इस प्रक्रिया के दौरान पाचन प्रणाली क्योंकि विश्राम में होती है । मस्तिष्क एवं शरीर के विकारों को दूर करने के लिए उपवार एक उत्कृष्ट चिकित्सा है । मंदाग्रि, कब्ज, गैसादि पाचन संबंधी रोगों, दमा – श्वास, मोटापा, उच्च रक्तचाप तथा गठिया आदि रोगों के निवारणार्थ उपवास का परामर्ष दिया जाता है ।
मिट्टी की चिकित्सा बहुत सरल एवं प्रभावी है । इसके लिए प्रयोग में लायी जानेवाली मिट्टी साथ - सुथरी और जमीन से 3 -4 फीट नीचे की होनी चाहिए । उसमें किसी तरह की मिलावट, कंडक - पत्थर या रासायनिक खाद वगैरह न हों शरीर को शीतलता प्रदान करने के लिए मिट्टी चिकित्सा का प्रयोग किया जाता है । मिट्टी शरीर के दूषित पदार्थो को घोलकर एवं अवषेषित कर अन्ततः शरीर के बाहर निकाल देती है । मिट्टी की पट्टी तथा मिट्टी स्नान इसके मुख्य उपचार है । विभिन्न रोगों जैसे कब्ज, तनावजन्य सिरदर्द, उच्च रक्तचाप तथा चर्मरोगों आदि में इसका प्रयोग सफलतापूर्वक किया जाता है । सिरदर्द तथा उच्च रक्तचाप की स्थिती में माथे पर भी मिट्टी की पट्टी रखी जाती है । गांधी जी अपने कब्ज दूर करने के लिए प्रायः मिट्टी चिकित्सा का प्रयोग किया करते थे ।
मिट्टी की तरह जल को भी चिकित्सा का सर्वाधिक प्राचीन साधन माना जाता है । स्वच्छ, ताजे एवं शीतल जल से अच्छी तरह स्नान करना जल चिकित्सा का एक उत्कृष्ट रूप् है । इस प्रकार के स्नान से शरीर के सभी रंध्र खुल जाते है, शरीर में हल्कापन और स्फूर्ति आती है, शरीर के सभी संस्थान ओर मांसपेषियाॅ सक्रिय हो जाती है तथा रक्त संचार भी उन्नत होता है । विषेष अवसरों पर नदी, तालाब अथवा झरने में स्नान करने की प्रथा वस्तुतः जल चिकित्सा का ही एक प्राकृतिक रूप् है । जल चिकित्सा के अन्य साधनों में कटिस्नान, एनिमा, गरम - ठंडा सेंक, गरम पद स्नान, रीढ़ स्नान, पूर्ण टब स्नान, गरम - ठंडी पट्टीयाॅ, पेट, छाती तथा पैरों की लपेट आदि आते है जो इसके उपचारात्मक प्रयोग है । जल चिकित्सा का प्रयोग मुख्यतः स्वस्थ रहने के साथ - साथ विभिन्न रोगों के निवारणार्थ किया जाता है ।
मालिश भी प्राकृतिक चिकित्सा की एक विधि है तथा स्वस्थ रहने के लिए आवशष्यक है । इसका प्रयोग अंग प्रत्यंगो को पुष्ट करते हुए शरीर के रक्त संचार को उन्नत करने में होता है । सर्दी के दिनों में पूरे शरीर की तेल की मालिश के बाद धूप स्नान करना सदैव स्वस्थ एवं क्रियाशील बने रहने का एक चिर - परिचित तरीका है । यह सभी के लिए लाभकारी है । इससे मालिश एवं सूर्य किरण चिकित्सा दोनों का लाभ मिलता है । रोग की स्थिती में मालिश के विशिष्ट प्रयोगों द्वारा आवश्यक चिकित्सकीय प्रभाव उत्पन्न करके विभिन्न रोग लक्षणों को दूर किया जाता है । जो व्यायाम नहीं कर सकते उनके लिए मालिश एक विकल्प है । मालिश के व्यायाम के प्रभाव उत्पन्न किये जा सकते है ।
सात रंगो से बनी सूर्य की किरणों के अलग - अलग चिकित्सकीय महत्व हैं । ये रंग है – बैंगनी, नीला, आसमानी, हरा, पीला, नारंगी तथा लाल । स्वस्थ रहने तथा विभिन्न उपचार में रंग प्रभावी ढंग से कार्य करते है । रंगीन बोतलों में पानी तथा तेल भरकर निष्चिशत अवधि के लिए सूर्य की किरणों के समक्ष रखकर तथा रंगीन शीशषो को सूर्य किरण चिकित्सा के साधनों के रूप में विभिन्न रंगो के उपचारार्थ प्रयोग में लाया जाता है । सूर्य किरण चिकित्सा की सरल विधियाॅ स्वास्थ्य सुधार की प्रक्रिया में प्रभावी तरीके से मदद करती है ।
अच्छे स्वास्थ्य के लिए स्वच्छ वायु अत्यन्त आवष्यक है । वायु चिकित्सा का लाभ वायु स्नान के माध्यम से उठाया जा सकता है द। इसके लिए कपडे उतार कर या हल्के कपडे पहन कर किसी स्वच्छ स्थान पर जहाॅ पर्याप्त वायु हो, प्रतिदिन टहलना चाहिए । कई रोगों में चिकित्सक भी वायु स्नान की सलाह देते है । प्राणायम का भी वायु चिकित्सा की एक विधि के रूप् में चिकित्सात्मक प्रयोग किया जाता है ।
रोग के मूल कारणों को जानने के लिए प्राकृतिक चिकित्सक दिनचर्या, ऋतुचर्या, आहार क्रम से लेकर वंषानुगत कारणों तक का विष्लेषण करते है । तात्कालिक रोगिक अवस्था को ज्ञात करने के लिए मुख्यतः निम्न दो नैदानिक विधियों का सहारा लिया जाता है -
1. कननिका निदान : पूरा शरीर कननिका के विभिन्न क्षेत्रों में प्रतिबिम्बित होता है । उनके विशष्लेषण द्वारा रोगी की दषा का अच्छी तरह से निदान किया जा सकता है ।
2. आकृति निदान : शरीर के विभिन्न अंगो में विजातीय पदार्थो का जमाव शरीर की आकृति से परिलक्षित होता है । शरीर के विभिन्न अंगो में रोगो की स्थिती का निदान उनके अवलोकन से किया जा सकता है ।
मिट्टी की पट्टी ।
सूर्य स्नान
मिट्टी स्नान
गर्म और ठंडा सेंक
कटि स्नान
गीली चादर लपेट मेहन स्नान
छाती की पट्टी
रीढ़ स्नान
पेट की पट्टी
पूर्ण टब स्नान
घुटने की पट्टी
पाद स्नान
एनिमा
वाष्प स्नान
दमा (प्रत्यूर्जता एवं श्वसनीद्) - Asthma (Allergic & Bronchial)
कब्ज - Constipation
पक्षाघात - Hemiplegia
पोलियो - Poliomyelitis
अमीबारूग्णता - Amoebiasis
अतिसार - Diarrhoea
उच्च रक्ताचाप - Hypertension
पेप्टिक व्रण - Peptic Ulcer
रक्ताल्पता - Anaemia
प्रवाहिका - Dysentery
निम्न रक्ताचाप - Hypotension
सोराइसिस - Psoriasis
उलझन/व्याकुलता - Anxiety Neurosis
मधुमेह - Diabetes Mellitus
अति आम्लता - Hyperacidity
खाज - Scabies
प्रत्यूर्जता सम्बन्धी चर्म रोग - Allergic Skin Diseases
दाद - Eczema
पीलिया - Jaundice
साइटिका - Sciatica
सर्वाइकल स्पोण्डिलोसिस - Cervical Spondylosis
मुख पक्षाघात - Facial Paralysis
श्वेत प्रदर - Leucorrhoea
प्लीहा वृद्धि - Splenomegaly
चिरकारी व्रण - Chronic Non-Healing Ulcers
उदरवायु - Flatutence
कुष्ठ रोग - Leprosy
संधिवात - Rheumatoid Arthritis
वृहदान्त्रषोथ - Colitis
जठर शोथ - Gastritis
मोटापा - Obestity
मनोकायिक विकार - Psycho-somatic disorders
यकृत सिरोसिस - Cirrhosis of liver
गठिया - Gout
आस्टियो-अर्थराइटिस - Osteo-Arthritis
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कनक एजुकेशन इंस्टीट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइन्स
डाॅ. ललित पोटफोडे
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